आज तक यह बता समझ में नहीं आई की जब लोकतंत्र को बनाया जा रहा था, तब उसके गले के आकार और उसकी गुणवत्ता पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया गया? शरीर के बाकी अंगों के मुताबिक उसे इतना कमजोर क्यों बनाया गया की हर कोई बात–बात पर सीधे उसका गला घोंट दिया जाता है? क्या लोकतंत्र के हमारे शिल्पियों को तब इसके गले की अहमियत को अंदाजा नहीं रहा होगा? अगर कोई दावा करता है कि इस देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं, तो वह आश्वस्त क्यों नहीं कर पाता है कि लोकतंत्र का गला भी मजबूत है?
गला अगर वाकई मजबूत होता, तो कोई ऐरा गैरा –सीधे लोकतंत्र गला घुटने पर अमादा न होता। अब यह रहस्य सब जान गए हैं कि लोकतंत्र का गला ही कमजोर है। लेकिन मुझे ताज्जुब इस बात का है की आजादी के बाद से अब तक कितनी बार लोकतंत्र का गला घोंटा जा चुका है, फिर भी इसकी मृत्यु की सर्वाधिक घोषणा क्यों नहीं हुई? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र वेंटीलेटर पर पड़ा है और जीवन रक्षक उपकरणों के सहारे उसे कृतिम सांसे दी जा रही हैं? हो सकता है कि लोकतंत्र कोमा में चला गया होगा और हम उसके बेजान पड़े ढांचे को ही लोकतंत्र मान बैठे हो। जब बार-बार लोकतंत्र का गला घोंटा जा सकता है, तो कुछ भी हो सकता है।
वैसे सच कहूं, तो यह लोकतंत्र है भी बड़ा विचित्र किस्म का प्राणी। जिसके 3 पाए होते हैं। इस हिसाब से किसी भी देश के लोकतंत्र को आप तिपहिया वाहन, यानी टैंपो, ऑटो रिक्शा इत्यादि मान सकते हैं। तीन पहिए का लोकतंत्र! आम जनता की सवारी। आप सड़क पर चलते किसी ऑटो रिक्शा को देखकर अपने बच्चो को बता सकते हो की देखो–देखे वह लोकतंत्र जा रहा है।